ओ स्त्री!
तू कौन है? तेरी मर्ज़ी क्या है?
तेरे सपने...? सपने तो बहुत होंगे..
एक सपने ही तो हैं... जो तू अपनी मर्ज़ी से देखती है...
वो सपने...जो तेरी खुद की जाई औलाद जैसे है...
वो तेरे हों या ना हों... तू बस उनकी ही होकर रहती है...!
वरना तो...
जो सबकी मर्ज़ी..वही तेरी मर्ज़ी बन जाती है...!
अब देख ना!
तू बाबा की लाडली, भैया की दुलारी,
माँ की पलकों पर पली....
जिसने जो नाम दिया, जो जगह दी...वहीं की हो ली..!
जैसे-जैसे बड़ी हुई... तेरे चारों ओर लक़ीरें खींची जाने लगीं...
ये ना करो! यहाँ मत जाओ! अपनी सीमा में रहो....
तूने मान ली... यही समझा कि वो तेरे अपने हैं...
तेरी भलाई ही सोचेंगे...
तू सिमट गयी...उन्हीं रेखाओं में...
अपनी मर्ज़ी से...!
मगर...क्या वो तेरी मर्ज़ी थी ?
तेरी आँखों में कोई सपना जन्म ले...उससे पहले ही...
डाल दिये गये कुछ अपनी मर्ज़ी के बीज ...
तेरी आँखों में..पलने के लिये...
'सफेद घोड़े पर सवार....आयेगा एक राजकुमार!
ले जायेगा तुझे अपने महल में...तुझे ब्याह कर!
फिर तू रानी, वो राजा ...दोनों बसाना...
अपना एक सुंदर संसार..!'
तेरा मन भी डोल जाता...
ऐसे लुभाने वाले रंग-बिरंगे खिलौनों से...
हर लड़के में अपना राजकुमार देखती...!
क्या करना है पढ़-लिख कर..?
आख़िर तो घर-गृहस्थी ही बसानी है...!
अफ़सर बिटिया, डॉक्टर बिटिया बनने के तेरे मंसूबे...
सब उन्हीं सपनों की भूलभुलैया में कहीं खो जाते...!
भटक जाती तू...अपने लक्ष्य के सपने से...
और सजा लेती अपनी आँखों के गुलदान में
उन काग़ज़ के फूलों से सपने...
अपनी मर्ज़ी से...
मगर...क्या वो तेरी मर्ज़ी थी?
जहाँ जन्मी, घुटनों चली, पली-बढ़ी..
वही घर-अँगना छोड़ने को मजबूर हुई...
बन जाती तू दान की वस्तु....
अपनी मर्ज़ी से...
मगर....क्या यही तेरी मर्ज़ी थी...?
एक ही दिन में....
बच्ची से बड़ी बन जाती...
घर को सिर पर उठाने वाली...
सिर को झुकाना सीख लेती..!
सुबह जल्दी उठना, सबकी सेवा करना,
साज-सिंगार...
पति के नाम... उसके मन भाये....
चाहे-अनचाहे....
समर्पण में ही खुद पूर्ण समझती...
अपनी मर्ज़ी से...
मगर....क्या यही तेरी मर्ज़ी थी...?
खाने में अपना भरपूर प्रेम उड़ेलना..
घर का, बच्चों का ख़याल रखना...
इतना... कि खुद को बिल्कुल भूल ही जाना...!
तुझे प्यार-सम्मान देने में...
किसने कितनी कंजूसी की....
इसकी तुझे परवाह ही ना होती...
क्योंकि तेरे सारे सपने घूमने लगते...
तेरे पति, बच्चे, घर गृहस्थी की धुरी पर...
अपनी मर्ज़ी से...
मगर....क्या यही तेरी मर्ज़ी थी...?
तेरा अस्तित्व.... तेरे सपने...
सब पर तेरे अपनों का रंग चढ़ जाता...
तुझे पता भी ना चलता...और...
उनके सपने... तू अपनी आँखों में सजा लेती...
अपनी मर्ज़ी से....
मगर...क्या यही तेरी मर्ज़ी थी...???
विचारणीय..... स्त्री हर रूप अपनों के सपने अपने मानती है .... और मर्जी... ? क्या कहें !
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDelete--
केशर-क्यारी को सदा, स्नेह सुधा से सींच।
पुरुष न होता उच्च है, नारि न होती नीच।।
--
आपकी पोस्ट का लिंक आज शुक्रवार के चर्चा मंच पर भी है!
आपका आभार.... शास्त्री सर!
Delete~सादर!!!
बहुत सार्थक रचना . महिला दिवस की सुभकामनाएँ.
ReplyDeleteनीरज'नीर'
इस अवसर पर मेरी भी कविता पढ़ें
KAVYA SUDHA (काव्य सुधा): “नारी”
और हाँ महिला कभी साधारण नहीं होती. स्त्री हमेशा असाधारण ही होती है.
भावपूर्ण और गहन विचार लिए रचना |
ReplyDeleteआशा
भावपूर्ण अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति-
ReplyDeleteभावमय करती रस्तुति ...
ReplyDeleteआभार
सब सपने तो सजते हैं अत्यंत विचारणीय विषय
ReplyDeleteगुज़ारिश : ''महिला दिवस पर एक गुज़ारिश ''
bahut sahi likha hai aapne.
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद व आभार... वंदना जी!
ReplyDelete~सादर!!!
इस रचना को पसंद करने तथा मुझे प्रोत्साहन देने के लिए आप सभी गुणी जनों का हार्दिक धन्यवाद व आभार
ReplyDelete~सादर!!!
जबरदस्त , बहुत सशक्त रचना ।
ReplyDeleteअब इसके दो पहलू हैं -पराधीन सपनेहूँ सुख नाहीं /व्यस्त जीवन ,समर्पित ईश्वर की सबसे बड़ी सौगात है .बेशक परम्परा गत रोल बदल रहें हैं .कल हो सकता है मर्द रसोई चलाये ,डाइपर बदलना सीख चुका है .ड्राइवर सीट पे महिला आ जाए मर्द मनमोहन बन जाए .
Deleteएक ही दिन में....
बच्ची से बड़ी बन जाती...
घर को सिर पर उठाने वाली...
सिर को झुकाना सीख लेती..!
सुबह जल्दी उठना, सबकी सेवा करना,
साज-सिंगार...
पति के नाम... उसके मन भाये....
चाहे-अनचाहे....
समर्पण में ही खुद पूर्ण समझती...
अपनी मर्ज़ी से...
मगर....क्या यही तेरी मर्ज़ी थी...?
ऊब चुकी है न अब औरत इस सबसे परम्परा गत छवि से .उसे चाहिए एक नया आसमान नै परवाज़ नए पंख क्या देगी पर्चा देखके भाषण पढ़ने वाली व्यवस्था ?
तेरा अस्तित्व.... तेरे सपने...
ReplyDeleteसब पर तेरे अपनों का रंग चढ़ जाता...
तुझे पता भी ना चलता...और...
उनके सपने... तू अपनी आँखों में सजा लेती...
अपनी मर्ज़ी से....
मगर...क्या यही तेरी मर्ज़ी थी...???
....वाह! बहुत प्रभावी मन को छूती पंक्तियाँ...बहुत सुन्दर
ReplyDeleteतेरा अस्तित्व.... तेरे सपने...
सब पर तेरे अपनों का रंग चढ़ जाता...
तुझे पता भी ना चलता...और...
उनके सपने... तू अपनी आँखों में सजा लेती...
अपनी मर्ज़ी से....
मगर...क्या यही तेरी मर्ज़ी थी.
निःशब्द करती रचना आपने नारी के त्याग तपस्या का सुन्दर चित्रण किया है
stri ki apni marzi wo khud hi kab samjh pati hai ki wo khud kya chaahati hai.
ReplyDeleteकभी नौबत ही कहां आई कि अपनी मर्जी़ से जी सकती!
ReplyDeleteऔरत की ज़िन्दगी का पूरा रोजनामचा , पल्लवन के दौर का समूचा मानसिक कुहाँसा और धुंध लिए है यह खूबसूरत रचना .
ReplyDeleteस्त्री के व्यक्तित्व का बहुआयामी चित्र ही बना दिया ......
ReplyDeleteनारी मन ही कुछ ऐसा होता है ....
ReplyDeleteबहुत बढ़िया, प्रभावशाली ...
sundar prastuti..
ReplyDeleteओ स्त्री!
ReplyDeleteतू कौन है? तेरी मर्ज़ी क्या है?
तेरे सपने...? सपने तो बहुत होंगे..
एक सपने ही तो हैं... जो तू अपनी मर्ज़ी से देखती है...
वो सपने...जो तेरी खुद की जाई औलाद जैसे है...
वो तेरे हों या ना हों... तू बस उनकी ही होकर रहती है...!
वरना तो...
जो सबकी मर्ज़ी..वही तेरी मर्ज़ी बन जाती है...!
शुक्रिया आपकी सद्य टिपण्णी के लिए .बढ़िया मानसिक बिम्ब लिए रचना का .
नारी मन की सशक्त अभिव्यक्ति, बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
नारी मन के अंतस की आवाज. क्या उनकी भी कुछ इच्छा आकाक्षाएँ हो सकती हैं.
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्त्तुति.
महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ.
e ladki.. teri marji me hi tere family ki safalta basi hai...:)
ReplyDeleteबहुत सार्थक प्रस्तुति आपकी अगली पोस्ट का भी हमें इंतजार रहेगा महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाये
ReplyDeleteआज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
अर्ज सुनिये
कृपया आप मेरे ब्लाग कभी अनुसरण करे
waah! bahut hi umda.....
ReplyDeleteतू तो अपनी आत्मा ढूंढ़ ...बस…
ReplyDeleteतुम्हारा प्रेम लिए मैं वहीँ मिलूँगा ...
निश्चित ....