उठी थी एक मौज ..
मेरे मन में भी कभी...
मचल कर चली थी... भिगोने तुझे भी..!
न जाने क्या सूझी तुझे...
उछाल फेंके कुछ पत्थर... उसकी तरफ...!
तिरस्कृत सी.....घायल हुई,
सहम गयी, थम गयी ...
और फिर सिमट गयी वो मौज...
मेरे ही अंतस में....!
वक़्त बहे जा रहा था... अपनी धुन में....
और...गुमसुम सी मैं...
बाँधती गयी हर उस मौज को..
जो...उठती तेरी तरफ...!
और यूँ ...अंजाने ही...
बनते गये कई बाँध ...
मुझमें में ही अंदर...!
बहती हूँ अब मैं....
खामोश दरिया जैसे...
अपने ही किनारों के दायरे में...!
देखती हूँ.. तुम्हें भी..किनारे पर बैठे...
पुकारते उस मतवाली मौज को...
अपने हाथों को डुबो कर...
उसकी खामोश धारा में...!
कभी कभी मगर...अब भी...
फेंक ही देते हो कंकड़ उसमें...!
आदत से मजबूर जो ठहरे....!
हलचल तो होती है...पानी में ....
मगर उस मौज तक... पहुँच पाती नहीं...!
शायद....
सिमटते सिमटते मुझमें... ,
डूबती गयीं मौजें...
बनकर भँवर... मुझी में !
ढूँढती हूँ कभी.. खुद को...
पूछती हूँ...
कौन हूँ मैं, कहाँ हूँ, किसलिए हूँ...?
पर कोई जवाब नहीं मिलता...
मैं भी शायद...
डूब गयी, खो गयी....उसी मौज के संग...!
मुझे पता भी न चला...
और बन गयी...मेरी एक समाधि ......
मुझमें में ही कहीं अंदर...!!!
खुद में खुद की वेदना समेट कर रखना बड़ी बात है
ReplyDeleteसुन्दर भावाभियक्ति
सादर !
रचना में रूपक तत्व का निर्वाह बहुत सशक्त ढंग से हुआ है .भाव समाधि लेती है रचना सृजन के धरातल पर भी .भाव शांति भी करती है .
ReplyDeleteआह!!!
ReplyDeleteक्या कहूँ अनिता...
मन की वेदना को महसूस किया है....
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति.
सस्नेह
अनु
बहुत सुन्दर सही आज़ादी की इनमे थोड़ी अक्ल भर दे . आप भी जानें हमारे संविधान के अनुसार कैग [विनोद राय] मुख्य निर्वाचन आयुक्त [टी.एन.शेषन] नहीं हो सकते
ReplyDeleteभावनाओं की लहरों पर कंकर से भी सच में बांध बन जाता है ...बहुत खूबसूरती से भाव अभिव्यक्त किए हैं ।
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ReplyDeleteसच में ...सुंदर भावाभिव्यक्ति
ReplyDeleteप्रभावी प्रस्तुति |
ReplyDeleteआभार आदरेया ||
क्यों नहीं समझ पाता कोई कि अंतर के शांत नीरव स्थल में कंकड़ फेकना कितने ज़ख्म दे जाता है ...बहुत सुन्दर
ReplyDeleteअद्भुत , अति उत्तम हर शब्द - शब्द में अंतर मन का समावेश बहुत खूब
ReplyDeleteमेरी नई रचना
खुशबू
प्रेमविरह
भावमय करते शब्द ... लाजवाब करती प्रस्तुति
ReplyDeleteहुआ दफन देखो मैं अपने ही अन्दर ,
ReplyDeleteहै मेरे भी अन्दर एक गहरा समन्दर .शुक्रिया आपकी टिपण्णी का .
बहती हूँ अब मैं....
ReplyDeleteखामोश दरिया जैसे...
अपने ही किनारों के दायरे में...!------बहुत सुंदर
बधाई
बहुत ही गहन अभिव्यक्ति, सुंदर बिंब, बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
सराहना व प्रोत्साहन के लिए आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया!:-)
ReplyDelete~सादर!!!
कभी हम' दृश्य' बन जाते हैं और कभी 'दृष्टा' , बस यही ऊहापोह बना रहता है । सुन्दर मार्मिक रचना ।
ReplyDeletebahut hi khubsurat
ReplyDeleteआपकी इस रचना को समर्पित ..
ReplyDeleteएक निश्छल सी हँसी, घायल हुई
उसे क्या मालूम, वह चोटिल हुई
कौन जाने अन कहे से दर्द को !
एक चिड़िया ही तो थी, घायल हुई !
मन को भाई इसके अंदर की शब्दों की परछाई !
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ReplyDeleteसशक्त सृजन
मैं भी शायद...
ReplyDeleteडूब गयी, खो गयी....उसी मौज के संग...!
मुझे पता भी न चला...
और बन गयी...मेरी एक समाधि ......
मुझमें में ही कहीं अंदर...!!!
शब्दों का अदभुत प्रयोग. सुंदर सृजन.
ReplyDeleteआपकी टिपण्णी हमें प्रासंगिक बनाए रहती है ,ऊर्जित करती है
मन को कचोटती रचना ..बहुत भावपूर्ण ..
ReplyDelete---सादर
सराहना तथा प्रोत्साहन के लिए... आप सभी गुणी जनों का हार्दिक धन्यवाद व आभार..!:-)
ReplyDelete~सादर!!!
बहुत ही सुन्दर कविता |
ReplyDeleteआह...शांत पानी में हलचल सी ...सुन्दर भावपूर्ण रचना!
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