Wednesday, 9 May 2012







ज़िंदगी की राहों में...अचानक...
जब अंधेरे मोड़ आते हैं..,
संभल तक हम नहीं पाते....
अपने भी.. अक्सर छोड़ जाते हैं...!
आती है फिर सन्नाटे में... अंदर से कोई आवाज़....
अंधेरा सा है क्यूँ छाया ?
उदासी का ये डेरा क्यूँ ?
ये डर कैसा ? ये आँसू क्यूँ ? 
ये बेचैनी के साए क्यूँ...?
मुसाफिर हम...तो रस्ते के.....बियाबानों से डरना क्यूँ ..?
जो हर सू हों अंधेरे तो...अंधेरों से.. सहमना क्यूँ ?
बनाकर दर्द को ताक़त, मिटा कर मन से सारे डर..

बनाकर अपने दिल को दीप.., लहू ज़ख़्मों का उसमें भर...,
जलाओ आस की वो ज्योत...जो दे दे मात हर तम को..
अखंड वो ज्योत है ऐसी...उजालों से ...भरे मन को..!!!

4 comments:

  1. बहुत खूब लिखा है आप ने. ब्लोग्गेर्स की दुनिया में स्वागत है...

    अरमानों की अर्थी में भी मुझको दीप जलाना होगा,
    आँखों में रख कर के आंसूं आज मुझे मुस्काना होगा.
    पाओं में छाला भी फूटे मुझको क़दम बढ़ाना होगा,
    तोड़ के ये रस्मों के बंधन मुझको आगे जाना होगा.

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  2. अनवारूल भाई, हौसला अफज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया!:-) ये हमारी छोटी सी कोशिश है...! हमारा पूरा प्रयास रहेगा कि आप लोगों का यहाँ तक आना सफल हो...!
    बहुत ही खूबसूरत पंक्तियाँ लिखीं हैं आपने...! एक बार फिर आपका तहे दिल से शुक्रिया ! :-)

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  3. उदासी का ये डेरा क्यूँ ?
    ये डर कैसा ? ये आँसू क्यूँ ?
    ये बेचैनी के साए क्यूँ...?
    मुसाफिर हम...तो रस्ते के.....बियाबानों से डरना क्यूँ ..?
    बहुत ही गहरे भावो की अभिवयक्ति.......!!!!

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