Saturday 1 December 2012

**~ काश....! ~**



वो भी दिन थे...
न तुमने कुछ कहा, न ही मैनें... 
मगर दोनों की खामोशी का रूप कितना जुदा था...~
तुमने कभी कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं समझी .....
और मेरी आवाज़ गूँजती रही ...
मेरी झुकी पलकों के भीतर...
काश! सुन ली होती तुमने...
तो आज....
अपने बीच इस तरह चीखती ना होती....
ये खामोशी...........!



काश! ज़िंदगी ऐसी एक किताब होती......
कि जिल्द बदलने से सूरत-ए-हाल बदल जाते...
मायूस भरभराते पन्नों को कुछ सहारा मिलता....    
धुंधले होते अश्आर भी चमक से जाते....
तो...बदल लेते हम भी...~
शिक़वों को फाड़ देते...
फ़िक्रें ओढ़ लेते....
ज़िंदगी को भी....
कुछ साँसें और मिल जातीं..........!

43 comments:

  1. चंद पल की वो खामोशी अगर टूट जाती तो ये "**~काश...!~**" कभी नही होता।

    बहुत ही खूबसूरती के साथ लिखा हैं।

    मेरी नयी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://rohitasghorela.blogspot.com/2012/11/3.html

    ReplyDelete
  2. काश! ज़िंदगी ऐसी एक किताब होती......
    कि जिल्द बदलने से सूरत-ए-हाल बदल जाते...
    मायूस भरभराते पन्नों को कुछ सहारा मिलता....
    धुंधले होते अश्आर भी चमक से जाते....
    तो...बदल लेते हम भी...~
    शिक़वों को फाड़ देते...
    फ़िक्रें ओढ़ लेते....
    ज़िंदगी को भी....
    कुछ साँसें और मिल जातीं..

    आपको मंजिल मिले

    ReplyDelete
    Replies
    1. सर... आपका बहुत बहुत शुक्रिया !:)
      ~सादर !!!

      Delete
  3. बहुत सुन्दर कविता |
    www.sunaharikalamse.blogspot.com
    हरिवंश राय बच्चन की कविताएँ यहाँ पढिये

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी... बहुत बहुत शुक्रिया !
      ~सादर!!!

      Delete
  4. "खामोशी की चीख" और "किताबे जिंदगी" - बहुत-बहुत खूब

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत शुक्रिया... राकेश कौशिक जी !
      ~सादर !!!

      Delete
  5. बहुत ख़ूब!
    आपकी यह सुन्दर प्रविष्टि आज दिनांक 03-12-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-1082 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

    ReplyDelete
  6. बहुत खूब ! शानदार !!
    Gyan Darpan

    ReplyDelete
  7. वो भी दिन थे...
    न तुमने कुछ कहा, न ही मैनें...
    मगर दोनों की खामोशी का रूप कितना जुदा था...~
    तुमने कभी कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं समझी .....
    और मेरी आवाज़ गूँजती रही ...
    मेरी झुकी पलकों के भीतर...
    काश! सुन ली होती तुमने...
    तो आज....
    अपने बीच इस तरह चीखती ना होती....
    ये खामोशी...........!
    पहला कमेन्ट मैंने जल्दबाजी में किया था लेकिन अब कविता के ह्रदय में उतर कर उसमे डुबकियाँ लगाकर कर रहा हूँ |बहुत ही अच्छी कविता है |

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद... तुषार जी !:)
      ~सादर !!!

      Delete
  8. Replies
    1. धन्यवाद... संजय कुमार चौरसिया जी !:)
      ~सादर!!!

      Delete
  9. खामोशी और सन्नाटे का अंतर मौन अभिव्यक्ति ने खूब रेखांकित किया है वहीं दूसरे चित्र में जिल्द और किताब का प्रयोग कोमल भावों को उकेरने में सफल रहा है. भावपूर्ण रचना के लिए बधाई.

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद... अरुण कुमार निगम जी !:)
      सादर !!!

      Delete
  10. बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी.बेह्तरीन अभिव्यक्ति .शुभकामनायें.
    आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपका हार्दिक धन्यवाद !:)
      ~सादर !!!

      Delete
  11. काश! ज़िंदगी ऐसी एक किताब होती......
    कि जिल्द बदलने से सूरत-ए-हाल बदल जाते...
    मायूस भरभराते पन्नों को कुछ सहारा मिलता....
    धुंधले होते अश्आर भी चमक से जाते..

    ....दिल को छू जाते अहसास...शब्दों और भावों का बहुत सुन्दर संयोजन...बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद सर !:)
      ~सादर !!!

      Delete

  12. खामोशी की चीख ,मौन मुखर होते देखा ,

    रचना को आपकी खुद अपने से रु -ब-रु देखा .

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद सर !:)
      ~सादर !!!

      Delete
  13. खामोशी की चीख ,मौन मुखर होते देखा ,

    रचना को आपकी खुद अपने से रु -ब-रु देखा .

    गैरों से कहा तुमने ,गैरों को सूना तुमने ,

    कुछ हमसे कहा होता ,कुछ हमसे सूना होता ,

    क्यों चले गए यों ही निस्संग छोड़ के ,एक भूतहा मौन छोड़ के .

    ReplyDelete

  14. खामोशी की चीख ,मौन मुखर होते देखा ,

    रचना को आपकी खुद अपने से रु -ब-रु देखा .

    गैरों से कहा तुमने ,गैरों को सूना तुमने ,

    कुछ हमसे कहा होता ,कुछ हमसे सुना होता ,

    क्यों चले गए यों ही निस्संग छोड़ के ,एक भूतहा मौन छोड़ के .

    ReplyDelete
  15. शिक़वों को फाड़ देते...
    फ़िक्रें ओढ़ लेते....
    ज़िंदगी को भी....
    कुछ साँसें और मिल जातीं.........सुन्दर हैं

    ReplyDelete
  16. बेहतरीन...
    आप ब्लॉग पर आइए...एक योजना है पढ़कर अवगत कराइए...

    ReplyDelete
  17. शिक़वों को फाड़ देते...
    फ़िक्रें ओढ़ लेते....
    ज़िंदगी को भी....
    कुछ साँसें और मिल जातीं..........!

    खामोशीयन बहुत कुछ कहती हैं .... सुंदर अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
  18. bahut hii acchee kavita hai Anita ji.

    ReplyDelete
  19. गहन एहसास ...बहुत सुंदर रचना ...अनीता जी ॥

    ReplyDelete
  20. बहुत ही खुबसूरत प्रस्तुति । मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद।

    ReplyDelete
  21. बहुत खूब ...
    जिंदगी किताब होती तो क्या बात थी ...
    लाजवाब नज़्म ...

    ReplyDelete
  22. आपकी प्रस्तुति का भाव पक्ष बेहद उम्दा लगा । मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है। धन्यवाद।

    ReplyDelete
  23. क्या बात है...वाह!! शुभकामनाएँ.

    ReplyDelete
  24. सुन्दर चित्रण...उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...

    ReplyDelete
  25. आप सभी गुणी जनों का ह्रदय से धन्यवाद व आभार !:-)
    क्षमा चाहती हूँ ! मेरी तबीयत खराब होने के कारण मैं Online नहीं आ सकी !:(
    ~सादर!!!

    ReplyDelete
  26. very...expressions
    मगर दोनों की खामोशी का रूप कितना जुदा था...~
    तुमने कभी कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं समझी .....
    its very true...

    ReplyDelete
  27. आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 11अप्रैल 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ReplyDelete