अंतरजाल पर साहित्य प्रेमियों की मासिक पत्रिका 'साहित्य कुञ्ज' के मई द्वितीय अंक में प्रकाशित मेरी कुछ क्षणिकाएँ
http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/A/AnitaLalit/kshanikayen.htm
1.
प्रेम की बेड़ियाँ...
फूलों का हार,
विरह के अश्रु...
गंगा की धार,
समझे जो वेदना
प्रिय के मन की...
योग यही जीवन का...
है यही सार !
2.
दिल की मिट्टी थी नम...
जब तूने रक्खा पाँव...,
अब हस्ती मेरी पथरा गयी..
बस! बाकी रहा .. तेरा निशाँ !
3.
सपने दिखाए तुमने...
पंख दिए तुमने...
और कह दिया मुझसे...
उड़ो! खूब ऊँचा उड़ो!
मगर मैं कैसे उड़ती?
उन सपनों के पंखों पर....
पाँव रखकर...
तुम्हीं खड़े थे...
और तुम्हें एहसास ही नहीं था...!
4.
खिलखिलाती, मुस्कुराती बहारें...,
वो सावन की पुलकित बौछारें...!
भिगो जाती थीं तन मन को जो...
कहाँ गुम गयीं वो.....
रिमझिम-रुनझुन फुहारें....?
बनकर परछाईं...आज भी दिल में....
बरसता है वो सावन.....!
भीगता नहीं मगर अब.... सूखा मन...!
फिर क्यों ... कहाँ से... कैसे..... महक उठे......
आँखों में..... ये सोंधापन....???
5.
कैसी ये दुनिया !
क्या इसकी तहज़ीब में जीना !
बढ़ाए जो हाथ कोई ...
समझ ले उसी को ज़ीना...!
6.
ज़िंदगी की सुबह...
जिनके हौसलों से आबाद हुई,
शाम ढले क्यों ज़िंदगी...
उनसे से ही बेज़ार हुई....?
7.
कितनी पाक होगी वो इबादत...
कितना ख़ूबसूरत होगा वो नज़ारा..
ख़ुदा के सजदे से जो सिर उठे....
सामने आँखों के हो सूरत-ए-यारा.....!
http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/A/AnitaLalit/kshanikayen.htm
1.
प्रेम की बेड़ियाँ...
फूलों का हार,
विरह के अश्रु...
गंगा की धार,
समझे जो वेदना
प्रिय के मन की...
योग यही जीवन का...
है यही सार !
2.
दिल की मिट्टी थी नम...
जब तूने रक्खा पाँव...,
अब हस्ती मेरी पथरा गयी..
बस! बाकी रहा .. तेरा निशाँ !
3.
सपने दिखाए तुमने...
पंख दिए तुमने...
और कह दिया मुझसे...
उड़ो! खूब ऊँचा उड़ो!
मगर मैं कैसे उड़ती?
उन सपनों के पंखों पर....
पाँव रखकर...
तुम्हीं खड़े थे...
और तुम्हें एहसास ही नहीं था...!
4.
खिलखिलाती, मुस्कुराती बहारें...,
वो सावन की पुलकित बौछारें...!
भिगो जाती थीं तन मन को जो...
कहाँ गुम गयीं वो.....
रिमझिम-रुनझुन फुहारें....?
बनकर परछाईं...आज भी दिल में....
बरसता है वो सावन.....!
भीगता नहीं मगर अब.... सूखा मन...!
फिर क्यों ... कहाँ से... कैसे..... महक उठे......
आँखों में..... ये सोंधापन....???
5.
कैसी ये दुनिया !
क्या इसकी तहज़ीब में जीना !
बढ़ाए जो हाथ कोई ...
समझ ले उसी को ज़ीना...!
6.
ज़िंदगी की सुबह...
जिनके हौसलों से आबाद हुई,
शाम ढले क्यों ज़िंदगी...
उनसे से ही बेज़ार हुई....?
7.
कितनी पाक होगी वो इबादत...
कितना ख़ूबसूरत होगा वो नज़ारा..
ख़ुदा के सजदे से जो सिर उठे....
सामने आँखों के हो सूरत-ए-यारा.....!
आपकी लिखी रचना शनिवार 24 मई 2014 को लिंक की जाएगी...............
ReplyDeletehttp://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
आभार ...यशोदा जी...
Delete~सादर
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (24-05-2014) को "सुरभित सुमन खिलाते हैं" (चर्चा मंच-1622) पर भी होगी!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
आभार सर ...
Delete~सादर
दिल की मिट्टी थी नम...
ReplyDeleteजब तूने रक्खा पाँव...,
अब हस्ती मेरी पथरा गयी..
बस! बाकी रहा .. तेरा निशाँ !
सुन तेरी दास्ताँ ,चट्टान भी पिघली
नाज़ुक शिकायत ,दिल से निकली ...
शुभकामनायें .,स्वस्थ रहें !
प्रिय बहन अनिता जी ! आपकी सभी क्षणिकाएँ एक से बढ़कर एक हैं-अगूँठी में जड़े नगीने की तरह । प्रेम के और यथार्थ की कठोरता को उकेरते जीवन के ताप से रचे बसे क्षणों को आपने मोतियों की तरह पिरो दिया है । बहुत सारी शुभकामनाएँ । आपकी लेखनी इसी तरह के भाव-सुमन खिलाती रहे । रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
ReplyDeleteबेहतरीन रचनाएँ ...तीसरी रचना यथार्थ भाव लिए है
ReplyDeleteजिंदगी से जुडी हैं सब क्षणिकाएं ...
ReplyDeleteएक से बढ़कर एक ...
सातों क्षणिकाएन अपने आप मे बेहतरीन !!
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचनाएँ
ReplyDeleteसराहना एवं प्रोत्साहन के लिए आप सभी का आभार ! :-)
ReplyDelete~सादर
कैसे कोई उडे जब तुम ही खडे थे उन पंखों पर पांव रख कर। अक्सर यही होता है ।
ReplyDeleteसुंदर क्षणिकाएं।