Tuesday 16 April 2013

**~क़तरा क़तरा पी ..ख्वाहिशें मैनें~** [हॉलैंड से प्रकाशित होने वाली पहली हिंदी पत्रिका 'अम्स्टेल गंगा' (अप्रैल - जून २०१३ अंक) में प्रकाशित मेरी रचना]



साहिल की खामोशी देखी, लहरों की बेचैनी देखी,
पुरसुक़ून सागर के दिल में... मैनें गहरी बेक़रारी देखी !

बेताब मचलती लहरें आकर ,पाँवों से मेरे लिपट-लिपट कर ....
तर-ब-तर मुझको कर जातीं....बेकल, बेबस दिखा के मंज़र...!

मेरे तन्हा दिल में भी.. उदासी के समंदर जगते,
जज़्बातों के रेले उठते.. एहसासों के मेले लगते...!

मुझे सराबोर कर जातीं... अश्कों की मौजें तूफ़ानी...,
गम के प्याले छलक ही जाते... बहती... आँखों से कहानी..!

देख मेरी हसरतों का पानी.... रेत पे लिख तहरीरें अपनी...,
लहरें वापस लौट ही जातीं... अपने वजूद की छोड़ निशानी...!

बेबस अरमानों के ढेर में.... टूटे ख्वाबों के रेतमहल में...,
पी क़तरा क़तरा..ख्वाहिशें मैनें...हुईं जज़्ब वही मेरी रूह में..!!!


Friday 12 April 2013

**~रास्ते खुद ही बनाने पड़ते हैं.... सच्चे प्यार को पाने के लिए....~**



जब ज़िंदगी में सैलाब आता है...
आँसू भी लहर बनकर उसका साथ देते हैं...
हाथों की पतवार से उन्हें हटा कर...
रास्ता बनाकर...
जीवन नैया को पार पहुँचाओ...
उस पार...
जहाँ कोई सपना इंतज़ार कर रहा होगा...
किसी जादुई स्पर्श का...
'अपनी हक़ीक़त के वजूद' से रू-ब-रू होने का.....
क्योंकि... हर सपना झूठा नहीं होता....
सबकी क़िस्मत में सच्चा प्यार होता है...
कभी ना कभी...कहीं ना कहीं...
ज़िंदगी में कम से कम...एक बार तो...
उससे मुलाक़ात ज़रूर होती है...
बस उस तक पहुँचने की ज़रूरत है....
वक़्त, नज़र और हालातों के फेर में...
उलझे बिना, चूके बिना....
दिल की गहराई की आवाज़ सुनते हुये...
तूफ़ानों से गुज़रते हुए...
रास्ते खुद ही बनाने पड़ते हैं....
सच्चे प्यार को पाने के लिए.....

Monday 1 April 2013

**~अक्सर....~**


१.
रिश्तों के गहरे मंथन में
उलझी जब भी मैं धारों में ...
घुट-घुट गयीं साँसें मेरी,
छलकीं.... अश्कों की कुछ बूँदें..
और नीलकंठ बन गयी मैं ...
अपनों की दुनिया में .... अक्सर .....

२.

जीवन के गहरे अंधेरों को..
ना मिटा सके जब... चँदा-तारे भी...
बनकर मशाल खुद जली मैं...
और राहें अपनी ढूंढीं मैनें... अक्सर.....

३.
कई बार...अपने आँगन में...
जब दीया जलाया है मैनें,
संग उसके....खुद को भी जलाया है मैनें...
और खुद ही... अपनी राख बटोरी मैनें....अक्सर...

४.
तमन्नाओं के सेहरा में भटकते हुए...
ऐसा भी हुआ कई बार....
थक कर जब भी बैठे हम.....,
खुद आप ही...  गंगा-जमुना बने हम.....अक्सर...