Tuesday 2 October 2012

~** ''दाग-ए-याद.. हरा-हरा'' **~


आदरणीय 'गुलज़ार' साहब की कविता 'वो कटी फटी हुई पत्तियां, और दाग़ हल्का हरा हरा!' से प्रेरित होकर लिखी हुई मेरी पंक्तियाँ...





कभी तोड़ीं थी जो शाख से कुछ पत्तियाँ.. हरी हरी..
मुरझाईं वो किताब में, लिए 'दाग-ए-याद'.. हरा-हरा ...!

तेरा शौक था.. मिले मुझसे तू,
मेरी आस थी.. तुझे देखना..!
तेरा ख़ौफ़ छिपा.. तेरी चुप में था,
मेरे दिल ने चाहा.. बयाँ तेरा ..! 
तू था सहमा सा.. तू डरा डरा...,
झुकी नज़रें थीं... मेरी हया ..!
तेरा नाम.. लब पे मेरे थमा....
था यक़ीन तुझे भी.. ज़रा ज़रा !
तेरे दिल में थी.. मेरी जूस्तजू...,.
रही खामोशी मगर... दरमियाँ ... !

नादान मैं..अंजान हूँ.....नहीं समझूँ क्या खोटा-खरा...~
जो कह दो..है वो बात ही क्या...?
जो न समझो... नज़र-ए-पयाम  क्या...?

महरूम जो ताबीरों से...जिए घुट-घुट दीवाना-हारा...
दे ज़ुबाँ जो टूटे ख्वाबों को...सम्मानित कवि कहलाया गया....!!!

19 comments:

  1. Anita ji, aap ki prastuti behad vicharottejk hai,bs ek guzaris hai ki bccho ko en nasihat ho ske to zaroor de"AZIB SAUK HAIJO KATL SE BHI BADTAR HAI,TUM APNI KITABO ME DABAKR N TITLIYA RAKHNA" (Lakshmishankar Bajpeyi)

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    1. Aziz Jaunpuri sahab... हौसला-अफज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया !:)
      आपकी बात बिल्कुल सही है... तितलियाँ बाग में रंग बिखेरने के लिए हैं, न कि किताबों में बंद होने के लिए !
      ~सादर !

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  2. नादान मैं..अंजान हूँ.....नहीं समझूँ क्या खोटा-खरा...~
    जो कह दो..है वो बात ही क्या...?
    जो न समझो... नज़र-ए-पयाम क्या...?

    बेहतरीन पंक्तियाँ।

    सादर

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  3. टूटकर जो बिखर जाए वह हो जाता है गुम
    पर एहसासों के सार जो लिख दे---- कवि कहो,या आत्मा

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    1. रश्मि प्रभा जी .... आपका हार्दिक धन्यवाद व आभार !:)
      आपने बिल्कुल सही कहा ! कवि की आवाज़... उसके दिल से निकलती है, वो आत्मा की ही तो आवाज़ होती है ! जिसने दिल से न लिखा...उसने क्या लिखा ?:)
      ~सादर!!!

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  4. खुद को ढूंढना,तौलना...
    पाकर खुद से खुद को खोना,
    असली जीवन है- ख़ुशी भी

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    1. धन्यवाद.... रश्मि जी !:)
      अभी तो हम खुद ही खुद को ढूँढ रहे हैं...
      ~कभी कभी मुलाक़ात हो जाती है...
      मगर फिर तस्वीर हाथों से फिसल जाती है...

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  5. तेरा शौक था.. मिले मुझसे तू,
    मेरी आस थी.. तुझे देखना..!

    बहुत सुन्दर अनीता....
    शायद गुलज़ार साहब भी यही कहें...

    अनु

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    1. आह ! गुलज़ार साहब ! :)
      शुक्रिया अनु !:)

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  6. बहुत सुन्दर कविता ,
    इसी पेज पर कुछ और बहुत अच्छी पंक्तियाँ पढ़ीं -

    "अभी तो हम खुद ही खुद को ढूँढ रहे हैं...
    ~कभी कभी मुलाक़ात हो जाती है...
    मगर फिर तस्वीर हाथों से फिसल जाती है..."

    ये और भी सुन्दर |

    regards.

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  7. वाह ! कमाल लिखती हैं आप..अच्छी लगी .

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  8. लिखती तो आप भी बहुत अच्छा हैं |

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  9. ati sundar anita jii...keep going..god bless

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  10. तू था सहमा सा.. तू डरा डरा...,
    झुकी नज़रें थीं... मेरी हया ..!
    तेरा नाम.. लब पे मेरे थमा....
    था यक़ीन तुझे भी.. ज़रा ज़रा !

    वाह ..... आज बहुत दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आना हुआ .... और सोच रही हूँ कि कितना कुछ अच्छा पढ़ने से रह गयी थी .... शुक्रिया

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