'अक्सर हालातों पर अपना बस नहीं होता है.... कौन अपना, कौन पराया....वक़्त सबके मायने बदल देता है....~खामोश ज़ख़्म का दर्द ... खुद लहूलुहान हो सिसकता है.....'
जीवन चक्रव्यूह का डेरा,
सदमों का लगा पहरा....
बोझिल साँसें...बेकल सारी,
जीवन-परिभाषा हारी....!
अपने क्या...और सपने क्या...
सबका रचा है ये घेरा...!
घातों ने... आघातों ने...
तोड़े कई गुमान...
किसी के हाथों... थमाया पहिया,
मौन खड़ा कहीं जला हिया....!
जान कोई... अंजान कोई....
कोई बेक़सूर...बेबस हो जिया....!
तोड़े वक़्त भ्रम-जाल सभी
बदले अपनों की नज़रें भी...
हाय! कैसी लाचारी उसकी ...
काँटों की जिसकी शय्या ....!!!
अब ये रोज रोज की उलझनें यारों सी लगती हैं,
ReplyDeleteएक रोज न मिलें तो दिल नहीं लगता |
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अच्छी और सच्ची कविता
सादर
सच्ची.....ये जीवन भी....काश थोडा आसान..कुछ सुलझा सा होता....
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना अनिता.
सस्नेह
अनु
घातों ने... आघातों ने...
ReplyDeleteतोड़े कई गुमान...
किसी के हाथों... थमाया पहिया,
मौन खड़ा कहीं जला हिया....!
जान कोई... अंजान कोई....
कोई बेक़सूर...बेबस हो जिया....!
तोड़े वक़्त भ्रम-जाल सभी
बदले अपनों की नज़रें भी...
हाय! कैसी लाचारी उसकी ...
काँटों की जिसकी शय्या
यही तो जीवन का चक्रव्यूह है
जीवन चक्रव्यूह का डेरा,
ReplyDeleteसदमों का लगा पहरा....
बोझिल साँसें...बेकल सारी,
जीवन-परिभाषा हारी....!
मर्म को छूते भाव
behatareen
ReplyDeleteवक्त सबको नंगा कर देता है दूध का दूध पानी का पानी कर देता है ,घाव अपनों का दिया हो या पराया वक्त के साथ भर जाता है ,दृष्टा भाव से जीवन को लेना हौसला देता है .
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना हर एक शब्द मैं सचाई बयाँ करती रचना
ReplyDeleteमेरी नई रचना
एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ
बहुत ही मर्मस्पर्षि रचना, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
सोच में दाल दिया तुम्हारी रचना ने ...वाकई ...!!!
ReplyDeleteकई बार जीवन हम खुद ही उलझा लेते हैं ... मर्म को छूती हुई रचना ...
ReplyDeleteक्या बात है.....आजकल ऐसी रचनाये कब पैदा हो रही हैं...बधाई!!
ReplyDeleteसराहना व प्रोत्साहन के लिए आप सभी का हार्दिक धन्यवाद व आभार!:-)
ReplyDelete~सादर!!!
तोड़े वक़्त भ्रम-जाल सभी
ReplyDeleteबदले अपनों की नज़रें भी...bahut sundar panktiyan...
घात आघात जीवन को दुष्कर कराते रहते हैं .... पर वक़्त चक्रव्यूह से निकालता भी है ... उम्दा प्रस्तुति
ReplyDeleteजीवन चक्रव्यूह का डेरा,
ReplyDeleteसदमों का लगा पहरा....
बोझिल साँसें...बेकल सारी,
जीवन-परिभाषा हारी....!
जीवन शायद इसी तरह चलता रहता है... चलता रहता है.
सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति.
आप तो बहुत चिंतन मंथन करती हैं ,ऐसा प्रतीत होता है ।
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