पूनम के चाँद पर.. आया निखार, आया फाल्गुन आया.. आया होली का त्योहार ! नीले, पीले ,लाल, गुलाबी...रंगों की बौछार, खुश्बू टेसू के फूलों की...लाई संग बहार...! दिल में उमंग उठी ... महकी बयार अँखियाँ छलकाए देखो ...प्रीत-उपहार ! भूलो सभी बैर, मिटे गर्द-गुबार भर पिचकारी मारो... नेह अपार ! फुलवारी रंगों की.. साथी फुहार एक रंग रंगे ... आज हुए एकसार ! रंग-रंगोली हो या दीप-दीपावली... दिल यही बोले...जब हों साथ हमजोली... 'तुम हो तो.... हर रात दीवाली हर दिन अपनी होली है....' ~"आप सभी को सपरिवार होली की हार्दिक शुभकामनाएँ !"~ :-)
ना वास्ता कोई ना ही कोई बंधन बीती बातों से , फिर भी ना जाने क्यूँ जब चलती ये बयार फाल्गुनी, पूनम चाँद खिले आसमान में, महक उठे... अतीत की गठरी, बह उठती... भूली यादों की हवा, सोंधी सी खुशबू वो पहली फुहार, पहली होली जो सपनों में खेली वो एहसास नहीं था अपना जो ना ही पराया दिल मानता उसे ! मासूम रिश्ता मासूम नादानियाँ लाल, गुलाबी रंगों में सजी हुई बिखेर जाती मुस्कुराती उदासी, रंगीन लम्हे भर के पिचकारी क्यूँ भिगो जाते आँखों की सूखी क्यारी? भूली कहानी यादों में सराबोर मचल जाती, ले नमकीन स्वाद हो के बेरंग, ओस की बूँदें जैसे खेलतीं होली ... ले पहली होली की... भीगी प्यारी फुहार...!
शीशे का दिल, पत्थर ये दुनिया.. मैं जाऊँ कहाँ... आओ सँवारें ईश्वर ने बनाया... बंधन प्यारा... हाथों में हाथ, मंज़िल सिर्फ़ प्यार... फिर क्या बात तुमसे मिले हर फूल महके... मेरे ग़म भी... जब साथ तू न फिक़्र मंज़िल की राहे वफ़ा में... थाम लो हाथ, दुनिया को दें मात... हम जो साथ...! सर्द जज़्बात, बर्फ़ीले एहसास खोये अल्फ़ाज़ ! सर्द जज़्बात , चाहत की धूप . को.. खोजे ये मन ! तेजस्वी रवि, लिखे स्वर्णाक्षरों में... तरंग पाती... . स्वर्ण कलश... सिंधु में ढुलकाती.... उषा पधारी ! यादें पिटारा... जब भी खुल जाएँ... कसके मन... बिखरें यादें... पलकों पर जब ... चमके ओस... नेह के रंग, रंगे जो तन-मन.... रहे मगन... !
~आदरणीय श्री देवेन्द्र कुमार बहल जी व श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी की हार्दिक आभारी हूँ..... :-)
ओ स्त्री! तू कौन है? तेरी मर्ज़ी क्या है? तेरे सपने...? सपने तो बहुत होंगे.. एक सपने ही तो हैं... जो तू अपनी मर्ज़ी से देखती है... वो सपने...जो तेरी खुद की जाई औलाद जैसे है... वो तेरे हों या ना हों... तू बस उनकी ही होकर रहती है...! वरना तो... जो सबकी मर्ज़ी..वही तेरी मर्ज़ी बन जाती है...! अब देख ना! तू बाबा की लाडली, भैया की दुलारी, माँ की पलकों पर पली.... जिसने जो नाम दिया, जो जगह दी...वहीं की हो ली..! जैसे-जैसे बड़ी हुई... तेरे चारों ओर लक़ीरें खींची जाने लगीं... ये ना करो! यहाँ मत जाओ! अपनी सीमा में रहो.... तूने मान ली... यही समझा कि वो तेरे अपने हैं... तेरी भलाई ही सोचेंगे... तू सिमट गयी...उन्हीं रेखाओं में... अपनी मर्ज़ी से...! मगर...क्या वो तेरी मर्ज़ी थी ? तेरी आँखों में कोई सपना जन्म ले...उससे पहले ही... डाल दिये गये कुछ अपनी मर्ज़ी के बीज ... तेरी आँखों में..पलने के लिये... 'सफेद घोड़े पर सवार....आयेगा एक राजकुमार! ले जायेगा तुझे अपने महल में...तुझे ब्याह कर! फिर तू रानी, वो राजा ...दोनों बसाना... अपना एक सुंदर संसार..!' तेरा मन भी डोल जाता... ऐसे लुभाने वाले रंग-बिरंगे खिलौनों से... हर लड़के में अपना राजकुमार देखती...! क्या करना है पढ़-लिख कर..? आख़िर तो घर-गृहस्थी ही बसानी है...! अफ़सर बिटिया, डॉक्टर बिटिया बनने के तेरे मंसूबे... सब उन्हीं सपनों की भूलभुलैया में कहीं खो जाते...! भटक जाती तू...अपने लक्ष्य के सपने से... और सजा लेती अपनी आँखों के गुलदान में उन काग़ज़ के फूलों से सपने... अपनी मर्ज़ी से... मगर...क्या वो तेरी मर्ज़ी थी? जहाँ जन्मी, घुटनों चली, पली-बढ़ी.. वही घर-अँगना छोड़ने को मजबूर हुई... बन जाती तू दान की वस्तु.... अपनी मर्ज़ी से... मगर....क्या यही तेरी मर्ज़ी थी...? एक ही दिन में.... बच्ची से बड़ी बन जाती... घर को सिर पर उठाने वाली... सिर को झुकाना सीख लेती..! सुबह जल्दी उठना, सबकी सेवा करना, साज-सिंगार... पति के नाम... उसके मन भाये.... चाहे-अनचाहे.... समर्पण में ही खुद पूर्ण समझती... अपनी मर्ज़ी से... मगर....क्या यही तेरी मर्ज़ी थी...? खाने में अपना भरपूर प्रेम उड़ेलना.. घर का, बच्चों का ख़याल रखना... इतना... कि खुद को बिल्कुल भूल ही जाना...! तुझे प्यार-सम्मान देने में... किसने कितनी कंजूसी की.... इसकी तुझे परवाह ही ना होती... क्योंकि तेरे सारे सपने घूमने लगते... तेरे पति, बच्चे, घर गृहस्थी की धुरी पर... अपनी मर्ज़ी से... मगर....क्या यही तेरी मर्ज़ी थी...? तेरा अस्तित्व.... तेरे सपने... सब पर तेरे अपनों का रंग चढ़ जाता... तुझे पता भी ना चलता...और... उनके सपने... तू अपनी आँखों में सजा लेती... अपनी मर्ज़ी से.... मगर...क्या यही तेरी मर्ज़ी थी...???