१.
रिश्तों के गहरे मंथन में
उलझी जब भी मैं धारों में ...
घुट-घुट गयीं साँसें मेरी,
छलकीं.... अश्कों की कुछ बूँदें..
और नीलकंठ बन गयी मैं ...
अपनों की दुनिया में .... अक्सर .....
२.
जीवन के गहरे अंधेरों को..
ना मिटा सके जब... चँदा-तारे भी...
बनकर मशाल खुद जली मैं...
और राहें अपनी ढूंढीं मैनें... अक्सर.....
३.
कई बार...अपने आँगन में...
जब दीया जलाया है मैनें,
संग उसके....खुद को भी जलाया है मैनें...
और खुद ही... अपनी राख बटोरी मैनें....अक्सर...
४.
तमन्नाओं के सेहरा में भटकते हुए...
ऐसा भी हुआ कई बार....
थक कर जब भी बैठे हम.....,
खुद आप ही... गंगा-जमुना बने हम.....अक्सर...
क्या कहने
ReplyDeleteबहुत सुंदर
होता है यूँ ही अक्सर.....
ReplyDeleteज़िन्दगी यूँ ही जी जाती है अक्सर....
बहुत ही सुन्दर अनिता...
अनु
बेहतरीन ...तीसरी रचना बहुत पसंद आई
ReplyDelete
ReplyDelete४.
तमन्नाओं के सेहरा में भटकते हुए...
ऐसा भी हुआ कई बार....
थक कर जब भी बैठे हम.....,
खुद आप ही... गंगा-जमुना बने हम.....अक्सर...
बहुत सशक्त सकारात्मक अंत लिए है यह भावात्मक अभिव्यक्ति जीवन में संतुलन और समझौते का सुख लिए .
आभार यशोदा जी...
ReplyDeleteसादर!!!
आदरणीय वीरेंद्र सर जी, महेंद्र जी, प्रिय मोनिका जी व अनु ... आप सभी के प्रोत्साहन का हार्दिक धन्यवाद व आभार.... :-)
ReplyDelete~सादर!!!
अक्सर बनना पड़ता है शिव खुद ही और जलना पड़ता है मशाल बन कर .... सभी क्षणिकाएँ बेहतरीन
ReplyDeleteप्रोत्साहन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद...संगीता दीदी!:-)
ReplyDelete~सादर!!!
बेहतरीन रचना , तमन्नाओं के सेहरा में भटकते हुए...
ReplyDeleteऐसा भी हुआ कई बार....
थक कर जब भी बैठे हम.....,
खुद आप ही... गंगा-जमुना बने हम.....अक्सर...
जीवन के गहरे अंधेरों को..
ReplyDeleteना मिटा सके जब... चँदा-तारे भी...
बनकर मशाल खुद जली मैं...
और राहें अपनी ढूंढीं मैनें... अक्सर.....
bahut khoob ....!!
बहुत बहुत धन्यवाद... हीर जी!:-)
Delete~सादर!!!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDelete--
इंजीनियर प्रदीप कुमार साहनी अभी कुछ दिनों के लिए व्यस्त है। इसलिए आज मेरी पसंद के लिंकों में आपका लिंक भी चर्चा मंच पर सम्मिलित किया जा रहा है और आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार (03-04-2013) के “शून्य में संसार है” (चर्चा मंच-1203) पर भी होगी!
सूचनार्थ...सादर..!
आभार सर...
Delete~सादर!!!
वाह आपने तो नारी मन का आईना दिखा दिया बहुत खूब ...
ReplyDeleteहौसला-अफज़ाई का बहुत-बहुत आभार... पल्लवी जी!:-)
Delete~सादर!!!
आभार महोदय...
ReplyDelete~सादर!!!
दीवाना न समझे कोई मुझको ...
ReplyDeleteआजकल मैं अपने आप से बात करता हूँ "अक्सर"
खुबसूरत अहसास !
पलकों में सजे अश्कों के आशियाने में हम खुद ही डूब जाते हैं अक्सर ...।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर परन्तु भावुक करती पंक्तियाँ ।
अक्सर अपनी ही सोच को लेकर चलने की कला ही ...कवि़त का रूप लेती है
ReplyDeleteरिश्तों के गहरे मंथन में
ReplyDeleteउलझी जब भी मैं धारों में ...
घुट-घुट गयीं साँसें मेरी,
छलकीं.... अश्कों की कुछ बूँदें..
और नीलकंठ बन गयी मैं ...
अपनों की दुनिया में .... अक्सर .....
बहुत प्यारी पंक्ति हैं अनीता जी ...गरल पान करना कवि के ही बूते की बात है... आपका लेखन सदा शिष्ट, सौम्य और दर्शन लिए होता है..बधाई और मंगल कामनाएँ..
सादर/सप्रेम
निःशब्द हैं हम... सारिका जी!
Deleteहार्दिक धन्यवाद व आभार!:-)
~सादर!!!
आपकी इस गहन प्रतिक्रिया के लिए आपका ह्रदय से बहुत-बहुत आभार! आपका यह शिष्ट, सौम्य और दर्शन लिए अंदाज देखकर आपसे मिलने का मन होता है...इच्छा है की कभी सम्मुख रह के आपको सुना जाए...
Deleteमंगल कामनाओं सहित,
सादर/सप्रेम
आपकी बधाई के लिए हार्दिक आभार!
Deleteनवरात्रे पर तमाम हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
~सादर!!!
सारिका मुकेश
riston ka mnthan achchhi bhavabhivyakti
ReplyDeleteaap ka nazariya hi kavita hai,
ReplyDeleteथक कर जब भी बैठे हम.....,
ReplyDeleteखुद आप ही... गंगा-जमुना बने हम.....अक्सर
बेहतरीन रचना
जीवन के गहरे अंधेरों को..
ReplyDeleteना मिटा सके जब... चँदा-तारे भी...
बनकर मशाल खुद जली मैं...
और राहें अपनी ढूंढीं मैनें... अक्सर.....
अपनी राहे तो खुद ही बनानी हती हैं ... बेहतरीन लिखा है ...
रिश्तों के गहरे मंथन में
ReplyDeleteउलझी जब भी मैं धारों में ...
घुट-घुट गयीं साँसें मेरी,
छलकीं.... अश्कों की कुछ बूँदें..
और नीलकंठ बन गयी मैं ...
अपनों की दुनिया में .... अक्सर .....
रचना का प्रारम्भ आपने जिस सुंदरता से आपने किया, पूरी रचना में उसका निर्वहन बनाए रखा। भावाभिव्यक्ति बहुत सुंदर है। आपको बधाई।
ati sundar.....wah
ReplyDeleteबेहद संजीदा भाव
ReplyDeleteसराहने तथा प्रोत्साहन देने के लिए... आप सभी गुणी जनों का हार्दिक धन्यवाद व आभार!:-)
ReplyDelete~सादर!!!
ReplyDeleteकई बार...अपने आँगन में...
जब दीया जलाया है मैनें,
संग उसके....खुद को भी जलाया है मैनें...
और खुद ही... अपनी राख बटोरी मैनें....अक्सर...
sundar aur prabhavshali bhavon se sanklit sb ke sb lajbab hain anita ji .....badhai sweekaren
आत्मा विश्वास जगाते भाव...
ReplyDeleteजीवन के गहरे अंधेरों को..
ना मिटा सके जब... चँदा-तारे भी...
बनकर मशाल खुद जली मैं...
और राहें अपनी ढूंढीं मैनें... अक्सर.....
बहुत भावप्रवण, बधाई.
वाह नीतू तुम्हारी सबसे बेहतरीन रचना लगी .....बहुत बहुत बहुत सुन्दर .....!!!!
ReplyDeleteवाह बेहद भावपूर्ण गहन अभिव्यक्ति अनीता जी बधाई बहुत बहुत बढ़िया लाजवाब
ReplyDeleteas always ur on dot-***
ReplyDeleteसुन्दर ...
ReplyDeleteएक पग तुम्हारे और बढे ....
एक दिया हमारे अन्दर जला ...
नीलकंठ-पन जीया गया ...
मन सीया गया ...
तुम गाते रहे
मैं सुनती रही
गंगा-जमुना बहती रही ...
मैं स्नात होती रही ....
जीवन के गहरे अंधेरों को..
ReplyDeleteना मिटा सके जब... चँदा-तारे भी...
बनकर मशाल खुद जली मैं...
और राहें अपनी ढूंढीं मैनें... अक्सर.....
संवेदनशील प्रस्तुति.
बहुत सुंदर रचना , शुभकामनाये ,
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ReplyDeleteजीवन के गहरे अंधेरों को..
ना मिटा सके जब... चँदा-तारे भी...
बनकर मशाल खुद जली मैं...
और राहें अपनी ढूंढीं मैनें... अक्सर.....
बहुत ही उम्दा अभिव्यक्ति |आभार अनीता जी
रिश्तों के गहरे मंथन में
ReplyDeleteउलझी जब भी मैं धारों में ...
घुट-घुट गयीं साँसें मेरी,
छलकीं.... अश्कों की कुछ बूँदें..
और नीलकंठ बन गयी मैं ...
अपनों की दुनिया में .... अक्सर .....
...बहुत मर्मस्पर्शी और सशक्त अभिव्यक्ति...
khubsurat kshanikayen....
ReplyDeleteतमस के बाद ही
ReplyDeleteसत् का प्रकाश
झलकता है,अक्सर!
बहुत सुन्दर लेखन | पढ़कर आनंद आया | आशा है आप अपने लेखन से ऐसे ही हमे कृतार्थ करते रहेंगे | आभार
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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सराहना तथा प्रोत्साहन के लिए आप सभी हार्दिक धन्यवाद व आभार!:-)
ReplyDelete~सादर!!!
सुबह सुबह मन प्रसन्न हुआ रचना पढ़कर !
ReplyDeleteबहुत खूब ...भावपूर्ण कविता....
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