Sunday, 17 February 2013

**~ जीवन चक्रव्यूह का डेरा....~**


'अक्सर हालातों पर अपना बस नहीं होता है.... कौन अपना, कौन पराया....वक़्त सबके मायने बदल देता है....~खामोश ज़ख़्म का दर्द ... खुद लहूलुहान हो सिसकता है.....'

जीवन चक्रव्यूह का डेरा,
सदमों का लगा पहरा....
बोझिल साँसें...बेकल सारी,
जीवन-परिभाषा हारी....!
अपने क्या...और सपने क्या...
सबका रचा है ये घेरा...!
घातों ने... आघातों ने...
तोड़े कई गुमान...
किसी के हाथों... थमाया पहिया,
मौन खड़ा कहीं जला हिया....!
जान कोई... अंजान कोई....
कोई बेक़सूर...बेबस हो जिया....!
तोड़े वक़्त भ्रम-जाल सभी
बदले अपनों की नज़रें भी...
हाय! कैसी लाचारी उसकी ... 
काँटों की जिसकी शय्या ....!!!

16 comments:

  1. अब ये रोज रोज की उलझनें यारों सी लगती हैं,
    एक रोज न मिलें तो दिल नहीं लगता |
    .
    अच्छी और सच्ची कविता

    सादर

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  2. सच्ची.....ये जीवन भी....काश थोडा आसान..कुछ सुलझा सा होता....
    बहुत अच्छी रचना अनिता.

    सस्नेह
    अनु

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  3. घातों ने... आघातों ने...
    तोड़े कई गुमान...
    किसी के हाथों... थमाया पहिया,
    मौन खड़ा कहीं जला हिया....!
    जान कोई... अंजान कोई....
    कोई बेक़सूर...बेबस हो जिया....!
    तोड़े वक़्त भ्रम-जाल सभी
    बदले अपनों की नज़रें भी...
    हाय! कैसी लाचारी उसकी ...
    काँटों की जिसकी शय्या

    यही तो जीवन का चक्रव्यूह है

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  4. जीवन चक्रव्यूह का डेरा,
    सदमों का लगा पहरा....
    बोझिल साँसें...बेकल सारी,
    जीवन-परिभाषा हारी....!

    मर्म को छूते भाव

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  5. वक्त सबको नंगा कर देता है दूध का दूध पानी का पानी कर देता है ,घाव अपनों का दिया हो या पराया वक्त के साथ भर जाता है ,दृष्टा भाव से जीवन को लेना हौसला देता है .

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  6. बहुत अच्छी रचना हर एक शब्द मैं सचाई बयाँ करती रचना
    मेरी नई रचना
    एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ

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  7. बहुत ही मर्मस्पर्षि रचना, शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  8. सोच में दाल दिया तुम्हारी रचना ने ...वाकई ...!!!

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  9. कई बार जीवन हम खुद ही उलझा लेते हैं ... मर्म को छूती हुई रचना ...

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  10. क्या बात है.....आजकल ऐसी रचनाये कब पैदा हो रही हैं...बधाई!!

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  11. सराहना व प्रोत्साहन के लिए आप सभी का हार्दिक धन्यवाद व आभार!:-)
    ~सादर!!!

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  12. तोड़े वक़्त भ्रम-जाल सभी
    बदले अपनों की नज़रें भी...bahut sundar panktiyan...

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  13. घात आघात जीवन को दुष्कर कराते रहते हैं .... पर वक़्त चक्रव्यूह से निकालता भी है ... उम्दा प्रस्तुति

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  14. जीवन चक्रव्यूह का डेरा,
    सदमों का लगा पहरा....
    बोझिल साँसें...बेकल सारी,
    जीवन-परिभाषा हारी....!

    जीवन शायद इसी तरह चलता रहता है... चलता रहता है.
    सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति.

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  15. आप तो बहुत चिंतन मंथन करती हैं ,ऐसा प्रतीत होता है ।

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