उसके प्यार को मैने जाना नहीं,
मेरी हया को उसने पहचाना नहीं,
बस इसी उधेड़बुन में...
ज़िंदगी ने हमको समझा नहीं !
मेरी आँखों ने उससे बहुत कुछ कहना चाहा,
उसकी नज़रों ने मुझसे बहुत कुछ सुनना चाहा,
लेकिन...खामोशी की बेबस दीवार..
दोनो के दरमियाँ रही !
मैं पल-पल उसकी ओर खींचती गयी,
वो पल-पल मुझसे दूर होता गया..!
वो वीरने में ज़िंदगी ढूँढने निकल पड़ा,
मैं ज़िंदगी में खुद को तलाशती रही..!
बीत गया वक़्त...,
बदल गये सारे नज़ारे ज़ीस्त के,
वो मेरी नज़र-ए-इनायत को तरसता रहा,
मेरा दिल उसे बेवफा समझता रहा...!
बाद बरसों के अचानक...
जो टकराए ज़िंदगी के एक मोड़ पर ..,
था एक ही सवाल दोनों के ज़हन में....
कैसा था ये खेल...जो खेला खुदा ने.....
थे दोनों जब मासूम और बावफ़ा मोहब्बत में....
तो तक़दीर क्यूँ दिलों से दुश्मनी निभाती रही...????
कल 27 जुलाई को मेरी माँ का जन्मदिन है! मेरी प्यारी माँ... प्यार और ममता की जीती जागती मूरत, बहुत ही कर्मठ, इच्छाशक्ति की एक अनूठी मिसाल हैं! जिस काम को उन्होंने किया जी लगाकर किया...और आज भी वही लगन, वही जज़्बा उनमें मौजूद है! अब बढ़ती उम्र की वजह से उनकी सेहत उनका साथ नहीं देती,मगर फिर भी, आज भी वो अपनी हिम्मत से आगे बढ़कर काम करतीं हैं! ईश्वर से मेरी आज, कल हमेशा... यही प्रार्थना है...कि हे ईश्वर! मेरी माँ का साया हमेशा मेरे सिर पर बना रहे! उनको दीर्घायु, स्वस्थ, खुशियों से भरा जीवन देना...और उनके मन में शांति और सुक़ून का सदैव वास रहे ! ~अमीन!
"जन्मदिन बहुत बहुत मुबारक माँ !"
माँ कैसे मनाऊँ तुम्हारा जन्मदिन...
क्या दूं मैं तोहफे में तुम्हें?
काश! दे पाती मैं तुम्हें...
वापस तुम्हारा बचपन,
नाना, नानी, मामा मौसी...
फिरती जिनके संग तुम तितली बन!
क्या दूं मैं तोहफे में तुम्हें...?
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काश! दे पाती मैं तुम्हें...
उम्र की वो दहलीज़,
जब थामा था पापा का तुमने हाथ,
देखे तुम्हारी आँखों ने सपने हज़ार..
उन सपनों का रेशमी लिबास...!
क्या दूं मैं तोहफे में तुम्हें...?
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काश! दे पाती मैं तुम्हें...
माँ कहलाने का वो अनूठा पल...
महक उठी थी जब तुम...पाकर झोली में दो फूल...
एक भैया और एक मैं!
पापा, तुम, भैया और मैं...
हम चारों के वो सांझे लम्हे...
तुम्हारे सबसे प्रिय दिन-रात!
क्या दूं मैं तोहफे में तुम्हें...?
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काश दे पाती मैं तुम्हें....
वो अनमोल पल....
भैया की शादी की जब मची धूम...
पायल की रुनझुन में देखी अपनी छवि...
दुख अपने सारे भूली सभी!
क्या दूं मैं तोहफे में तुम्हें...?
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काश दे पाती मैं तुम्हें...
तुम्हारा वो बेजोड़ उत्साह ओ जुनूँ....
जब नये घर में खुद को वारा तुमने!
रोगों को नकारा, अपनों को संभाला..
कोई शिक़न न चेहरे पर लाई
कभी किसी से न माँगा कुछ भी ..!
क्या दूं मैं तोहफे में तुम्हें...?
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काश दे पाती मैं तुम्हें...
वो निराली चमक....
जो देखी थी तुम्हारे चेहरे पर...
आने पर नया मेहमान... भाभी की गोदी में!
घर में बढ़ती किल्कारियों की गूँज...,
संग जिनके गूँजी मेरी शहनाई की धुन..!
क्या दूँ मैं तोहफे में तुम्हें...?
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काश दे पाती मैं तुम्हें...
निरंतर बातों के वो पल छिन...
जो बाँटे हमने....हर दिन, हर पल ..
मेरी अटखेलियों से खिले....तुम्हारी ममता के आँचल तले..
पहले इसके... कि मैं होती विदा..!
तुम्हारे दिल में बसी धड़कन की तरह,
मेरी शादी थी तुम्हारा अनमोल सपना!
क्या दूँ मैं तोहफे में तुम्हें...?
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काश दे पाती मैं तुम्हें....
वो सारे सपने, वो सारे पल...
जो तुमने देखे, जो संजोए तुमने...,
जो हुए पूरे या रहे अधूरे !
वो हिम्मत, वो सेहत...
जो तुमको कभी ना डिगा सके...अपने मक़सद से!
इच्छाशक्ति की मिसाल हो तुम...
अब भी तुममें है वो जज़्बा बड़ा..!
पर गिरती सेहत से लाचार तुम..!
दिल चाहे, मैं दूँ तोहफे में तुम्हें. !
वो तुम्हारी पहले सी सेहत, वो खिलती मुस्कान,
वो चमकती आँखें, वो मन की शांति
मालूम है मुझे...इससे प्यारा तुम्हें...कोई तोहफा नहीं...
जब भी माँगा तुमने ईश्वर से, फैलाकर अपनी झोली...
माँगी तो बस एक ही चीज़....
परिवार का सुख...और मन का सुक़ून !!!
अकड़ जाती है जब भी मेरी क़लम..बैठे बैठे,
चल पड़ती है वो सैर को, यूँ ही मेरे..अंतस को टटोलने..!
देखती है झाँककर मेरी आँखों में...
पाती है कुछ ख्वाब...उनीन्दे से..!
बैठती कुछ पल उनके साथ...
छूकर उन्हें जगाती, उनके संग मुस्काती !
फिर पहुँचती..दिल के भीतर...
पाकर कुछ महके हुए एहसास...
खिल उठती वो भी उनके साथ !
सिर झुकाए, रूठे रूठे , अकड़े हुए से...
जब देखती.. कुछ उलझे हुए जज़्बात..
सहलाती उनको...पूछती उनसे उनका हाल...
मगर पाती उन्हें बेज़ुबान..!
बदहवास से, इधर उधर टहलते वो जज़्बात ...
देख कलम को, हो उठते... कुछ बोलने को बेक़रार...
लगते पीटने... ज़हन का दरवाज़ा..!
क़लम भी उनके संग जुट जाती...ज़हन की सांकल खटखटाती...!
मौका पाकर ....सबकी नज़र बचाकर ..., वो फिर.
घुस जाती झिरी से ज़हन के भीतर!
हाल देख ज़हन का मगर ..ठिठक ही जाती मेरी क़लम !
वो उलझा बेचारा दुनियादारी में...किसकी सुने, किसकी कहे?
फँसा शब्दों के जाल में...हुआ शब्दों से ही लाचार !
बैठा कोने में नज़रें चुराए, बोल उठता कलम से ज़हन....
"क्या दूँ मैं तुम्हें ? नहीं बचा कुछ मेरे पास!
थक गया मैं... पिस कर बीच में...ख्वाबों और ख़यालों के..!"
थाम हाथ ज़हन का , बोलती मुस्कुरा के मेरी कलम ...
" इस तरह तुम मुझे न बिसरो..!
मैं तुम्हारी गूँज हूँ..., हूँ तुम्हारी ही आवाज़..!
बस! बाँट लो मुझसे..
अपने ख्वाब, अपने एहसास !
अपनी खुशियाँ , अपना अवसाद ..!!!"
मैं आगे..., ज़िंदगी मेरे पीछे चलती रही...
रेशमी ख्वाबों के, मखमली एहसासों के अनमोल लम्हे....
अपनी साँसों में लपेट....हर मोड़ पर सहेज ..
मैं उसको थमाती रही...!
अब...
ज़िंदगी आगे..., मैं पीछे चलती हूँ....,
वक़्त के तक़ाज़ों की... बेरहम धूप में....
बेज़ार, बेजान सी मैं...जब हाँफने लगती हूँ...,
बैठ जाती हूँ...सुक़ून से... यादों की छाँव में....
लम्हा लम्हा गिनती हूँ .... साँसें साँसें चुनती हूँ...!!!.
खिलखिलाती, मुस्कुराती बहारें...,
वो सावन की पुलकित बौछारें...!
भिगो जाती थीं तन मन को जो...
कहाँ गुम गयीं वो.....
रिमझिम रुनझुन फुहारें....?
बनकर परछाईं...आज भी दिल में....
बरसता है वो सावन.....!
भीगता नहीं मगर अब.... सूखा मन...!
फिर क्यूँ... कहाँ से... कैसे.....
महक उठे......
आँखों में..... ये सोंधापन....???
गम की जलती धूप में...
छाया में तुम्हारी.. आना चाहूँ...
'तुम ...हल्के से मुस्का देना..!'
उलझी उलझी राहों में...
मैं रस्ता खोज नहीं पाऊँ...
'तुम ...हल्के से मुस्का देना..!'
जीवन की बोझिल सिलवट में...
लड़खड़ा कहीं मैं गिर जाऊँ...और फिर कभी न उठ पाऊँ....,
'तुम ...हल्के से मुस्का देना..!'
मंज़िल को पाने वाले अक्सर रस्ते भूला करते हैं...,
मैं रस्ते में ही गुम जाऊँ...और लौट के फिर न आ पाऊँ...
'तुम ... हल्के से मुस्का देना...!'
'मुस्कान' तुम्हारी 'क़ातिल' है..,
जिस दिन 'मेरा' ये 'क़त्ल' करे...,
मैं इसमें 'घुट' कर 'मर' जाऊँ...
'इल्तिजा' है तुमसे.....
'जाते जाते' .....
तुम 'क़र्ज़' मेरा 'लौटा' देना...~~~
'आँसू' 'अपने' 'वापस' लेकर..,
'मुस्कान' 'मेरी' 'लौटा' देना...!
'मुझे' 'चैन' से 'सो' लेने देना....
'एक जीवन जी लेने देना' .....,
'मुझे चैन से सो लेने देना' .........