स्त्रियों के विकास के लिए बहुत कुछ किया जा रहा है! हम सभी प्रयासरत हैं -अपनी बेटियों को ऊँची से ऊँची शिक्षा दिला रहे हैं, जिससे वे आत्मनिर्भर बनें, अपने जीवन के फ़ैसले सोच-समझकर लें, भावी जीवन में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलें! साथ ही अपने बेटों को भी सिखा रहे हैं कि वे लड़कियों/स्त्रियों की इज़्ज़त करें, उन्हें अपने से क़तई कमतर न आँकें, घर के कामों में बराबर से मदद करें! मगर विडंबना ये है कि स्त्री को आगे बढ़ने से रोकने वाली, अक्सर पहले एक स्त्री ही होती है, पुरुष तो बाद में आते हैं! सही मायनों में देखा जाये तो समाज में बदलाव अपने घर से ही शुरू होता है!
नीचे दो लघुकथाएँ दी गई हैं, जिनमें देखा जा सकता है कि एक अत्यंत सामान्य सी परिस्थिति में, कैसे स्त्री के विकास में अड़ंगा लगाया जा सकता है या बढ़ावा दिया जा सकता है -
1.
अस्तित्व
महिला-दिवस का आयोजन था। हॉल महिलाओं सा खचाखच भरा हुआ था। फुसफुसाहट के मधुर स्वर बीच-बीच में गूँज उठते थे और पूरे माहौल में इत्र की मिली-जुली सुगंध घुली हुई थी। एक महिला स्टेज पर भाषण दे रही थी-"हम महिलायें अब घर में सजाने वाली वस्तु नहीं रह गयीं हैं। हमारा अपना एक अलग वजूद है, अपना ध्येय है, अपनी ज़रूरतें है … " हॉल में बैठी हुई कुछ महिलायें दूर बैठी महिलाओं से अभिवादन का आदान-प्रदान कर रहीं थीं , कुछ दूसरों के वस्त्रों का आंकलन कर रहीं थीं। बीच-बीच में तालियाँ भी बजा देतीं थीं।
इतने में श्रीमती शर्मा ने श्रीमती सिन्हा से
कहा, "क्या हुआ मिसेज़ सिन्हा, आज
आप आने में लेट हो गयीं ? सिन्हा साहब की तबियत अब कैसी है?"
श्रीमती सिन्हा ने कुछ खीजे हुए स्वर में कहा, "अरे क्या बताऊँ मिसेज़ शर्मा! सिन्हा साहब की तबियत तो आज बेहतर है मगर ये
आजकल की बहुओं के चोंचले! सुबह मैं तैयार हो ही रही थी कि देखा बहूरानी पहले ही से
तैयार खड़ी हैं, आज उसकी अपने बॉस के साथ मीटिंग थी !"
श्रीमती शर्मा के आँखों में एक ख़ुराफ़ाती जिज्ञासा जाग उठी, चेहरे पर आश्चर्य के भाव लाते हुए तुरंत पूछ बैठीं, "अच्छा! फिर…?” "फिर
..." श्रीमती सिन्हा बोलीं, "मैनें भी कह दिया कि
आज ऑफिस से छुट्टी ले लो, मुझे महिला-दिवस के ज़रूरी फंक्शन
में जाना है।"
"फिर?" श्रीमती शर्मा की जिज्ञासा और भी बढ़ी
हुई प्रतीत हो रही थी।
"फिर क्या! " श्रीमती
सिन्हा रौब से बोलीं , "आखिर सास हूँ !
मेरा भी कुछ हक़ बनता है उसपर … " श्रीमती सिन्हा के चेहरे पर विजय के भाव थे।
स्टेज पर महिला का भाषण अंतिम चरण पर था,
"अब पुरुष चाहे कुछ भी कर ले, हम महिलाओं
को आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता … "
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2.
सामंजस्य
महिला-दिवस का आयोजन था। हॉल महिलाओं से खचाखच भरा हुआ था। फुसफुसाहट के मधुर स्वर बीच-बीच में गूँज उठते थे और पूरे माहौल में इत्र की मिली-जुली सुगंध घुली हुई थी। एक महिला स्टेज पर भाषण दे रही थी-"हम महिलायें अब घर में सजाने वाली वस्तु नहीं रह गयीं हैं। हमारा अपना एक अलग वजूद है, अपना ध्येय है, अपनी ज़रूरतें है … " हॉल में बैठी हुई कुछ महिलायें दूर बैठी महिलाओं से अभिवादन का आदान-प्रदान कर रहीं थीं , कुछ दूसरों के वस्त्रों का आकलन कर रहीं थीं। बीच-बीच में तालियाँ भी बजा देतीं थीं।
इतने में श्रीमती शर्मा ने श्रीमती सिन्हा से
कहा, "क्या हुआ मिसेज़ सिन्हा, आज
आप आने में लेट हो गयीं ? सिन्हा साहब की तबियत अब कैसी है?"
श्रीमती सिन्हा ने हलके से मुस्कुरा कर कहा, "सिन्हा जी की तबियत तो अब पहले से बेहतर है। देर तो बहू के ऑफिस के कारण
हुई। आज शीनू की अपने बॉस के साथ मीटिंग थी। " श्रीमती शर्मा के आँखों में एक
ख़ुराफ़ाती जिज्ञासा जाग उठी, चेहरे पर आश्चर्य के भाव लाते
हुए तुरंत पूछ बैठीं, "अच्छा! फिर…?” "फिर क्या! शीनू बेचारी संकोच में थी ,
परेशान हो रही थी कि क्या करे, कैसे मना करे
अपने बॉस को! तो मैंने ही उससे कहा कि वह चिंता न करे ! अपनी मीटिंग ख़त्म करके आ
जाए, उसके बाद मैं इस फंक्शन में आ जाऊँगी। जब वह घर लौटी
तभी मैं आई। " श्रीमती सिन्हा ने कहा! यह बताते समय उनके चेहरे पर एक
आत्मसंतुष्टि का भाव, एक सुक़ून ,एक तेज
था। और श्रीमती शर्मा के चेहरे पर एक बनावटी, हारी हुई, खिसियाई हुई शर्मिंदा हँसी थी।
स्टेज पर महिला का भाषण अंतिम चरण पर था, "जिस दिन हम महिलाएँ, महिलाओं का दर्द समझ लेंगीं वही दिन हमारी उन्नति की ओर हमारा पहला क़दम होगा…"
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