Friday, 24 May 2013

**~मैं करूँ तो क्या ? ~ क्षणिकाएँ **




१.

अनजाने में ही सही....
तुमने ही खड़े किए बाँध... अना के....
वरना..... मेरी फ़ितरत तो पानी -सी थी....!

२.

हाथ उठाकर दुआओं में...
तेरी खुशियाँ माँगी थी मैनें...
नहीं जानती थी....
मेरे हाथों की लक़ीरों से ही निकल जाएगा तू...!

३.

तुमसे जुदा हुई....
तो कुछ मर गया था मुझमें...
जो मर गया था....
उसमें ज़िंदा तुम आज भी हो.....!

४.

ए खुदा मेरे ! मैं करूँ तो क्या ?
ग़मज़दा हूँ मैं... ना-शुक़्र नहीं...
एक हाथ में काँच सी नेमतें तेरी...
दूजे में पत्थर दुनिया के.....
दुनिया को उसका अक़्स दिखा...
या मुझको ही कर दे पत्थर....!

Friday, 10 May 2013

**~ऊन के गोले जैसी.... "माँ " ~**



                          सतरंगी ऊन के गोले जैसी ...
                          नर्म, मुलायम ..प्रेम-पगी ...,
                        समेटे सब को , लिपटाए खुद में,
                        कोमल स्पर्श...सहलाती माँ !

                          सहनशीलता और धैर्य की...
                          नुकीली तेज़ सलाईयों पर...
                        एक-एक क़दम बढाती हुई ...
                       सपने बच्चों के बुनती माँ !

                       सीधा-उल्टा , उल्टा-सीधा ..
                      कभी सीधा-सीधा, उल्टा-उल्टा...,
                      रातों को भी जाग-जाग कर ...
                     उँगली, कमर... कस, चलती माँ !

                    चुस्त हाथ ... बारीक़ नज़र से...
                  सपनों का आकार... सजाती माँ !
                     गिरा फंदा उठाने ख़ातिर ...
                  कभी उल्टे पाँव भी चलती माँ !
                        गाँठ ग़र आती  ...
                 उधेड़ बुनाई ... नये सिरे से ...
                   फिर सपने चढ़ाती माँ !

               प्यार, दुलार ,सेवा ,ममता ...
               अनुशासन के हर पल्ले पर ...,
               जैसे जैसे जीवन बढ़ता ...
                 जोड़-घटाने करती माँ !

                 समय बढ़ता, बढ़ते बच्चे ,
                 सपनों का भी रंग निखरता !
                नेह-धागे से पिरो... सँवारती ...
               बच्चों का तन-मन भरमाती माँ !

                रहे ना कोई सपना अधूरा..
               बुरी नज़र ना लगे किसी की ...,
              आख़िरी टाँका चूम होठों से....
             अपने दाँतों से काटती माँ !

              यूँ हर पल.. बढ़ते सपने उसके ...
             निकल हाथों से ... होते साकार !

              वो निहारती ,वो इतराती,
             बाँहों में उनको भरना चाहती ...!
       अफ़सोस मगर ! वो भूल ही जाती ...
         'सपने बुनते-बुनते गुम गया ...
        ऊन का तो वजूद ही घुल गया ...!'
        रह गयी बनकर एक धागा पतला ...
           बंद डिब्बे में... सिकुड़ा -सिमटा ...!

       उत्साह...पर उसका... न हल्का होता... 
       निग़ाह सपनों से कभी ना हटती !
        जब भी होता ... कोई सपना आहत ....
          धागे से मलहम बन जाती ...
      टूटा सपना फिर-फिर  ...जोड़ती ...!
     बिन पैबंद ...बस.. मुस्काती माँ !

          सपनों में अपना जीवन बुन कर ....
        दुआ बन सदा महकती  माँ ...!

Saturday, 4 May 2013

**~ रिश्तों का पेड़ ~**


दिल्ली से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका 'समृद्ध सुखी परिवार' के मई अंक में प्रकाशित मेरा लेख:
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हर रिश्ता एक पेड़ की तरह होता है! वो तभी फले-फूलेगा जब हम उसकी उचित ढंग से , बराबर देखभाल करेंगे  अब ये  काम हमारा है कि...हम उनके बीजों की सही तरह से सिंचाई करें, खाद उपलब्ध कराएँ, उन्हें पर्याप्त सूरज की रोशनी दिखायें और ज़रूरत पड़ने पर छाया में सहेजें ! 

     तक़रीबन  हर रिश्ते का  का जन्म एक बीज से ही होता है! यह बीज भिन्न रिश्तों के लिए भिन्न भिन्न नामों से जाना जाता है! पेड़-पौधों की तरह ये रिश्ते भी जीते-मरते हैं, कुम्हलाते हैं और पल्लवित होते हैं इन रिश्तों को निस्वार्थ  प्रेम की मिटटी, उत्साह, त्याग, आपसी विश्वास , परस्पर निर्भरता, समझ बूझ, प्यार भरे बोलों की खाद, नर्म एहसासों की पर्याप्त धूप, भरपूर अपनत्व के छिड़काव, समय और  समर्पण रुपी पानी  की सिंचाई और दिल से की गयी  देखभाल चाहिए ! तभी ये रिश्ते सुन्दर रूप से पुष्पित और पल्लवित होते हैं ! इन बीजों के पौधे और वृक्ष तक के सफ़र में इन्हें समय-शरीर के थपेड़ों, आर्थिक, शारीरिक  , मानसिक, और आज के समय की गंभीर संवेदनात्मक और भावनात्मक परेशानियों की धूप से बचने के लिए  स्नेह, आदर, उदारता, ज़िम्मेदारी  रुपी छाँव और साया भी प्रदान करना होता है !

   बहन-भाई, पति, बच्चे, सास ससुर, ननद भाभी, देवर, दोस्त...इत्यादि...सब रिश्तों के बीज हमारे  हाथ में रख दिए जाते हैं! फिर ये ज़िम्मेदारी हमारी होती है...कि हम उनकी देखभाल किस तरह से करते हैं! जैसी देखभाल करेंगे....वैसे ही पेड़ में उस रिश्ते का विकास होगा! जिस प्रकार पेड़ के विकास के साथ...उसकी देख-रेख में बदलाव आता है, ठीक उसी प्रकार...वक़्त के साथ हर रिश्ते की देखभाल का तरीक़ा भी बदलता जाता है! इस बात का भी हमें विशेष ध्यान रखना चाहिए ...! 
   सिर्फ़ एक रिश्ता जो हमें बीज के रूप में नहीं बल्कि पेड़ के रूप में मिलता है...वो है...माँ-पिता का ! उस रिश्ते की छाँव में हम बीज से पेड़ बनते हैं! इस लायक बनते हैं...कि जब हमारे हाथों में किसी रिश्ते का बीज रक्खा जाए, तो हम उसे एक सुंदर फलता फूलता पेड़ बना सकें! ठोकरों की चिलचलाती धूप में माँ का प्यार भरा आँचल हमारे लिए साया बनता है ,  तो कठिनाइयों के तेज़ तूफान में भी खड़े रहने का मज़बूत सहारा... हमें पिता से मिलता है इस निःस्वार्थ तथा अथाह प्यार की सिंचाई और खाद...ताउम्र हमारे साथ रहती है...और हमारे हर रिश्ते की बुनियाद बनती है!

    यही एक ऐसा रिश्ते का पेड़ है, जो हमारे फलने फूलने के बाद भी...हमें खाद पानी देने में कोई कोताही नहीं बरतता ! उसके लिए हम वही नन्हा बीज या पौधा रहते हैं, जिसकी उचित देखभाल करना वो अपना दायित्व समझता है बस, समय के साथ... उसके देखभाल का ढंग ज़रा बदल जाता है! कितनी भी कड़ी  मुसीबतों की धूप क्यों न हो...माँ का आँचल कभी भी साया देने से पीछे नहीं हटता.., हालातों की कैसी भी भयानक आँधी क्यों न हो... पिता की अनुभवी सलाह  हर तूफान से लड़ने की हिम्मत रखती है...!

        मगर खेद की बात ये है...कि हम खुद अक्सर दूसरे रिश्तों को सहेजने में कुछ इस तरह लीन हो जाते हैं...या फिर इतने स्वार्थी बन जाते हैं  कि इस ईश्वरीय रिश्ते को भूल जाते हैं! भूल जाते हैं कि... समय के साथ ये पेड़ कमज़ोर पड़ने लगा है! इसकी जड़ों को, शाखों को.... अब हमारी देखभाल की ज़रूरत है! हम अपने नये रिश्तों को सँवारने में अपना सारा ध्यान लगा देते हैं.. और सबसे बड़ी विडंबना ये हैं कि...हम अपने नये रिश्तों में इतना उलझ जाते हैं कि जब इस पेड़ की शाखें चरमराती हैं..तब या तो हमारे पास वक़्त नहीं होता या फिर.. कभी कभी हम खीज भी उठते हैं ! जो बहुत दुख की बात  है !
      
       इससे पहले, कि...हमारे हाथों से निखरे बीज ये ग़लती करें...हमें एक बार अपने अंदर झाँककर देखना चाहिए...कहीं हम ये ग़लती तो नहीं कर रहे? अगर हम अपना फ़र्ज़ पूरा करते चलेंगे तो हमारे अन्य रिश्ते भी गरिमामय रूप धारण कर सकेंगे! इतना ज़रूर याद रहे कि विश्वास और निःस्वार्थ हर रिश्ते की मूल है और स्वार्थ वा दीमक है जो हर रिश्ते को खोखला, अपूर्ण और भार बना देता है!